तैत्तिरीय उपनिषद् – भृगुवल्ली | Taittiriya Upanishad – Bhraguvalli
तैत्तिरीय उपनिषद सबसे महत्वपूर्ण दस प्राचीन उपनिषदों में से सातवाँ उपनिषद है और इसे तीन खंडों में विभाजित किया गया है, शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली। शिक्षावल्ली को संहिता उपनिषद के रूप में भी जाना जाता है और ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने के कारण वरुणी उपनिषद या विद्या के रूप में भी जाना जाता है। ब्रह्मानंद और भृगुवल्ली ब्रह्मविद्या के सार ‘ब्रह्मविदप्नोति परं’ मंत्र से शुरू करते हैं। ब्रह्म के लक्षणों को सत्य, ज्ञान और सनातन रूप बताकर उसे मन और वाणी से परे अचिन्त्य कहा गया है। वरुण ने भृगु को इस निर्गुण ब्रह्म के सगुण प्रतीकों जैसे भोजन, जीवन, मन, विज्ञान और आनंद आदि के क्रमिक चिंतन से अवगत कराया है।
तैत्तिरीय उपनिषद् – भृगुवल्ली स्तोत्र | Taittiriya Upanishad – Bhraguvalli Stotra
(तै.आ.9.1.1)
ॐ स॒ह ना॑ववतु । स॒ह नौ॑ भुनक्तु । स॒ह वी॒र्य॑-ङ्करवावहै । ते॒ज॒स्विना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै᳚ । ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥
भृगु॒र्वै वा॑रु॒णिः । वरु॑ण॒-म्पित॑र॒मुप॑ससार । अधी॑हि भगवो॒ ब्रह्मेति॑ । तस्मा॑ ए॒तत्प्रो॑वाच । अन्न॑-म्प्रा॒ण-ञ्चक्षु॒श्श्रोत्र॒-म्मनो॒ वाच॒मिति॑ । तग्ं हो॑वाच । यतो॒ वा इ॒मानि॒ भूता॑नि॒ जाय॑न्ते । येन॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । यत्प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑शन्ति । तद्विजि॑ज्ञासस्व । तद्ब्रह्मेति॑ । स तपो॑-ऽतप्यत । स तप॑स्त॒प्त्वा ॥ 1 ॥
इति प्रथमो-ऽनुवाकः ॥
अन्न॒-म्ब्रह्मेति॒ व्य॑जानात् । अ॒न्नाद्ध्ये॑व खल्वि॒मानि॒ भुता॑नि॒ जाय॑न्ते । अन्ने॑न॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । अन्न॒-म्प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑श॒न्तीति॑ । तद्वि॒ज्ञाय॑ । पुन॑रे॒व वरु॑ण॒-म्पित॑र॒मुप॑ससार । अधी॑हि भगवो॒ ब्रह्मेति॑ । तग्ं हो॑वाच । तप॑सा॒ ब्रह्म॒ विजि॑ज्ञासस्व । तपो॒ ब्रह्मेति॑ । स तपो॑-ऽतप्यत । स तप॑स्त॒प्त्वा ॥ 1 ॥
इति द्वितीयो-ऽनुवाकः ॥
प्रा॒णो ब्र॒ह्मेति॒ व्य॑जानात् । प्रा॒णाद्ध्ये॑व खल्वि॒मानि॒ भूता॑नि॒ जाय॑न्ते । प्रा॒णेन॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । प्रा॒ण-म्प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑श॒न्तीति॑ । तद्वि॒ज्ञाय॑ । पुन॑रे॒व वरु॑ण॒-म्पित॑र॒मुप॑ससार । अधी॑हि भगवो॒ ब्रह्मेति॑ । तग्ं हो॑वाच । तप॑सा॒ ब्रह्म॒ विजि॑ज्ञासस्व । तपो॒ ब्रह्मेति॑ । स तपो॑-ऽतप्यत । स तप॑स्त॒प्त्वा ॥ 1 ॥
इति तृतीयो-ऽनुवाकः ॥
मनो॒ ब्रह्मेति॒ व्य॑जानात् । मन॑सो॒ ह्ये॑व खल्वि॒मानि॒ भूता॑नि॒ जाय॑न्ते । मन॑सा॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । मनः॒ प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑श॒न्तीति॑ । तद्वि॒ज्ञाय॑ । पुन॑रे॒व वरु॑ण॒-म्पित॑र॒मुप॑ससार । अधी॑हि भगवो॒ ब्रह्मेति॑ । तग्ं हो॑वाच । तप॑सा॒ ब्रह्म॒ विजि॑ज्ञासस्व । तपो॒ ब्रह्मेति॑ । स तपो॑-ऽतप्यत । स तप॑स्त॒प्त्वा ॥ 1 ॥
इति चतुर्थो-ऽनुवाकः ॥
वि॒ज्ञान॒-म्ब्रह्मेति॒ व्य॑जानात् । वि॒ज्ञाना॒द्ध्ये॑व खल्वि॒मानि॒ भूता॑नि॒ जाय॑न्ते । वि॒ज्ञाने॑न॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । वि॒ज्ञान॒-म्प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑श॒न्तीति॑ । तद्वि॒ज्ञाय॑ । पुन॑रे॒व वरु॑ण॒-म्पित॑र॒मुप॑ससार । अधी॑हि भगवो॒ ब्रह्मेति॑ । तग्ं हो॑वाच । तप॑सा॒ ब्रह्म॒ विजि॑ज्ञासस्व । तपो॒ ब्रह्मेति॑ । स तपो॑-ऽतप्यत । स तप॑स्त॒प्त्वा ॥ 1 ॥
इति पञ्चमो-ऽनुवाकः ॥
आ॒न॒न्दो ब्र॒ह्मेति॒ व्य॑जानात् । आ॒नन्दा॒द्ध्ये॑व खल्वि॒मानि॒ भूता॑नि॒ जाय॑न्ते । आ॒न॒न्देन॒ जाता॑नि॒ जीव॑न्ति । आ॒न॒न्द-म्प्रय॑न्त्य॒भिसंविँ॑श॒न्तीति॑ । सैषा भा᳚र्ग॒वी वा॑रु॒णी वि॒द्या । प॒र॒मे व्यो॑म॒न्प्रति॑ष्ठिता । स य ए॒वं-वेँद॒ प्रति॑तिष्ठति । अन्न॑वानन्ना॒दो भ॑वति । म॒हान्भ॑वति प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्ब्रह्मवर्च॒सेन॑ । म॒हान्की॒र्त्या ॥ 1 ॥
इति षष्ठो-ऽनुवाकः ॥
अन्न॒-न्न नि॑न्द्यात् । तद्व्र॒तम् । प्रा॒णो वा अन्नम्᳚ । शरी॑रमन्ना॒दम् । प्रा॒णे शरी॑र॒-म्प्रति॑ष्ठितम् । शरी॑रे प्रा॒णः प्रति॑ष्ठितः । तदे॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितम् । स य ए॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितं॒-वेँद॒ प्रति॑तिष्ठति । अन्न॑वानन्ना॒दो भ॑वति । म॒हान्भ॑वति प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्ब्रह्मवर्च॒सेन॑ । म॒हान्की॒र्त्या ॥ 1 ॥
इति सप्तमो-ऽनुवाकः ॥
अन्न॒-न्न परि॑चक्षीत । तद्व्र॒तम् । आपो॒ वा अन्नम्᳚ । ज्योति॑रन्ना॒दम् । अ॒प्सु ज्योतिः॒ प्रति॑ष्ठितम् । ज्योति॒ष्यापः॒ प्रति॑ष्ठिताः । तदे॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितम् । स य ए॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितं॒-वेँद॒ प्रति॑तिष्ठति । अन्न॑वानन्ना॒दो भ॑वति । महा॒न्भ॑वति प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्ब्रह्मवर्च॒सेन॑ । म॒हान्की॒र्त्या ॥ 1 ॥
इत्यष्टमो-ऽनुवाकः ॥
अन्न॑-म्ब॒हु कु॑र्वीत । तद्व्र॒तम् । पृ॒थि॒वी वा अन्नम्᳚ । आ॒का॒शो᳚-ऽन्ना॒दः । पृ॒थि॒व्यामा॑का॒शः प्रति॑ष्ठितः । आ॒का॒शे पृ॑थि॒वी प्रति॑ष्ठिता । तदे॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितम् । स य ए॒तदन्न॒मन्ने॒ प्रति॑ष्ठितं॒-वेँद॒ प्रति॑तिष्ठति । अन्न॑वानन्ना॒दो भ॑वति । म॒हान्भ॑वति प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्ब्रह्मवर्च॒सेन॑ । म॒हान्की॒र्त्या ॥ 1 ॥
इति नवमो-ऽनुवाकः ॥
न कञ्चन वसतौ प्रत्या॑चक्षी॒त । तद्व्र॒तम् । तस्माद्यया कया च विधया बह्व॑न्न-म्प्रा॒प्नुयात् । अराध्यस्मा अन्नमि॑त्याच॒क्षते । एतद्वै मुखतो᳚-ऽन्नग्ं रा॒द्धम् । मुखतो-ऽस्मा अ॑न्नग्ं रा॒ध्यते । एतद्वै मध्यतो᳚-ऽन्नग्ं रा॒द्धम् । मध्यतो-ऽस्मा अ॑न्नग्ं रा॒ध्यते । एतद्वा अन्ततो᳚-ऽन्नग्ं रा॒द्धम् । अन्ततो-ऽस्मा अ॑न्नग्ं रा॒ध्यते ॥ 1 ॥
य ए॑वं-वेँ॒द । क्षेम इ॑ति वा॒चि । योगक्षेम इति प्रा॑णापा॒नयोः । कर्मे॑ति ह॒स्तयोः । गतिरि॑ति पा॒दयोः । विमुक्तिरि॑ति पा॒यौ । इति मानुषी᳚स्समा॒ज्ञाः । अथ दै॒वीः । तृप्तिरि॑ति वृ॒ष्टौ । बलमि॑ति वि॒द्युति ॥ 2 ॥
यश इ॑ति प॒शुषु । ज्योतिरिति न॑क्षत्रे॒षु । प्रजातिरमृतमानन्द इ॑त्युप॒स्थे । सर्वमि॑त्याका॒शे । तत्प्रतिष्ठेत्यु॑पासी॒त । प्रतिष्ठा॑वान्भ॒वति । तन्मह इत्यु॑पासी॒त । म॑हान्भ॒वति । तन्मन इत्यु॑पासी॒त । मान॑वान्भ॒वति ॥ 3 ॥
तन्नम इत्यु॑पासी॒त । नम्यन्ते᳚-ऽस्मै का॒माः । तद्ब्रह्मेत्यु॑पासी॒त । ब्रह्म॑वान्भ॒वति । तद्ब्रह्मणः परिमर इत्यु॑पासी॒त । पर्येण-म्म्रियन्ते द्विषन्त॑स्सप॒त्नाः । परि ये᳚-ऽप्रिया᳚ भ्रातृ॒व्याः । स यश्चा॑य-म्पु॒रुषे । यश्चासा॑वादि॒त्ये । स एकः॑ ॥ 4 ॥
स य॑ एवं॒-विँत् । अस्मांल्लोँ॑कात्प्रे॒त्य । एतमन्नमय-मात्मानमुप॑सङ्क्र॒म्य । एत-म्प्राणमय-मात्मानमुप॑सङ्क्र॒म्य । एत-म्मनोमय-मात्मानमुप॑सङ्क्र॒म्य । एतं-विँज्ञानमय-मात्मानमुप॑सङ्क्र॒म्य । एतमानन्दमय-मात्मानमुप॑सङ्क्र॒म्य । इमांल्लोँकन्कामान्नी -कामरूप्य॑नु-स॒ञ्चरन्न् । एतथ्साम गा॑यन्ना॒स्ते । हा(3) वु॒ हा(3) वु॒ हा(3) वु॑ ॥ 5 ॥
अ॒हमन्न-म॒हमन्न-म॒हमन्नम् । अ॒हमन्ना॒दो(3)-ऽ॒हमन्ना॒दो(3)-ऽ॒हमन्ना॒दः । अ॒हग्ग् श्लोक॒कृद॒हग्ग् श्लोक॒कृद॒हग्ग् श्लोक॒कृत् । अ॒हमस्मि प्रथमजा ऋता(3) स्य॒ । पूर्व-न्देवेभ्यो अमृतस्य ना(3) भा॒यि॒ । यो मा ददाति स इदेव मा(3) वाः॒ । अ॒हमन्न॒-मन्न॑-म॒दन्त॒मा(3) द्मि॒ । अहं॒-विँश्व॒-म्भुव॑न॒-मभ्य॑भ॒वाम् । सुव॒र्न ज्योतीः᳚ । य ए॒वं-वेँद॑ । इत्यु॑प॒निष॑त् ॥ 6 ॥
इति दशमो-ऽनुवाकः ॥
ॐ स॒ह ना॑ववतु । स॒ह नौ॑ भुनक्तु । स॒ह वी॒र्य॑-ङ्करवावहै । ते॒ज॒स्विना॒वधी॑तमस्तु॒ मा वि॑द्विषा॒वहै᳚ । ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥
॥ हरिः॑ ओम् ॥
॥ श्री कृष्णार्पणमस्तु ॥
सुनें तैत्तिरीय उपनिषद् भृगुवल्ली स्तोत्र | Listen Taittiriya Upanisha Bhraguvalli Stotra
तैत्तिरीय उपनिषद् भृगुवल्ली का अर्थ | Taittiriya Upanishad Bhraguvalli Meaning in Hindi
वरुण का सुप्रसिद्ध पुत्र भृगु अपने पिता वरुण के पास गया [और बोला] ‘भगबन् । मुझे ब्रह्म का बोध कराइये !! उससे वरुण ने यह कहा,अन्न,प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाक् [ये ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं] ! फिर उससे कह्य–“जिससे निश्चय ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर जिसके आश्रय से ये जीवित रहते हैं और अन्त बिनाशोन्मुख होकर जिसमें ये लीन होते हैं. उसे विशेष खून से जानने की इच्छा कर; वही ब्रह्म है !! तब उस ( भृगु) ने तप किया और उसने तप करके ॥ १ ॥ अन्न ब्रह्म है—ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय अन्न से ही ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर अन्न से ही जीवित रहते हैं. तथा प्रयाण करते समय अन्न में ही लीन होते हैं । ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुण के पास आया [ और कहा] ‘भगवन् ! मुझे ब्रह्म का उपदेश कीजिये ।! वरुण ने उससे कहा—‘ब्रह्म को तप के द्वारा जानने की इच्छा कर, तप ही ब्रह्म हैं ! तब उसने तप किया और उसने तप करके॥ १॥ प्राण ब्रह्मा है–ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय प्राण से ही ये प्राणी उत्पन होते हैं, उत्पन्न होने पर प्राण से ही जीवित रहते हैं और मरणोन्सुख होने पर प्राण में ही लीन हो जाते हैं | ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुण के पास आया । [ और बोला–] ‘भगवन् ! मुझे ब्रह्म का उपदेश कीजिये।” उससे वरुण ने कहा’ तू, तप से ब्रह्मा को जानने की इच्छा कर। तप ही ब्रह्म है !! तब उसने तप किया और उसने तप करके ॥ १॥ मन ब्रह्म है—ऐसा जाना; क्योंकि निश्चय मन से ही ये जीव उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर मन के द्वारा ही जीवित रहते हैं और अन्त में प्रयाण करते हुए मन में ही लीन हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर पिता वरुण के पास गया [ और बोला–]) ‘भगवन् ! मुझे ब्रह्म का उपदेश कीजिये [” वरुण ने उससे कहा–तू तप से ब्रह्म को जानने की इच्छा कर, तप ही ब्रह्म है ।! तब उसने तप किया और उसने तप करके ॥ १॥ विज्ञान ब्रह्म है–ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय विज्ञानसे ही ये सब जीव उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर विज्ञान से ही जीवित रहते हैं और फिर मरणोन्मुख होकर विज्ञान में हो प्रविष्ट हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर पिता वरुण के समीप आया [ और बोला—] भगवन ! मुझे ब्रह्म का उपदेश कीजिये !” वरुण ने उससे कहा–“तू तप के द्वारा बह्म को जानने की इच्छा कर । तप ही ब्रह्म है ।! तब उसने तप किया और तप करके–। १ ॥ आनन्द ब्रह्म हैं–ऐसा जाना; क्योंकि आनन्द से ही ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होने पर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते हैं. और प्रयाण करते समय आनन्द में ही समा जाते हैं | वह यह भृगु की जानी हुई और वरुण की उपदेश की हुई विद्या परमाकाश में स्थित है | जो ऐसा जानता हैं वह ब्रह्मा में स्थित होता हैं; वह अन्नवान और अन्न का भोक्ता होता हैं; प्रजा, पश्च॒ और ब्रह्म तेज के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता हैं.॥ १॥ अन्न का त्याग न करे | यह व्रत है | जल ही अन्न है। ज्योति अन्नाद है | जल में ज्योति प्रतिष्ठित है. और ज्योति में जल स्थित है। इस प्रकार ये दोनों अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित हैं | जो इस प्रकार अन्न को अन्न में स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित होता है, अन्नवान् और अन्नाद होता है, प्रजा, पश् और ब्रह्म तेज के कारण महान् होता है. तथा कीति के कारण भी महान् होता है ॥ १॥अन्न को बढ़ावे–यह ब्रत है । पृथ्वी ही अन्न हैं। आकाश अन्नाद है । पूथिवी में आकाश स्थित है और आकाश में पृथ्वी स्थित है। इस प्रकार ये दोनों अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्न को अन्न में स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित होता है, अन्रवान् और अन्नाद होता है, प्रजा, पश्च और ब्रह्मतेज के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान होता है ॥ १॥ अपने यहाँ रहने के लिये आये हुए किसी का भी परित्याग न करे । यह व्रत है । अतः किसी-न-किसी प्रकार से बहुत-सा अन्न प्राप्त करे, क्योंकि वह ( अन्नोपासक ) उस ( ग्रहागत अतिथि ) से “मैंने अन्न तैयार किया है ? ऐसा कहता है | जो पुरुष मुखतः ( प्रथम अवस्था में अथवा मुख्य वृत्ति से यानी सत्कारपूर्वक ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मुख्यबृत्ति से ही अन्न की प्राप्ति होती है | जो मध्यतः ( मध्यम आयुर्मे अथवा मध्यम वत्ति से ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मध्यम इत्ति से ही अन्न को गप्राप्ति होती है | तथा जो अन्ततः ( अन्तिम अवस्थामें अथवा निदृष्ट वत्तिसे ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे निकृष्ट इत्ति से ही अन्न प्राप्त होता है ॥ १॥ जो इस प्रकार जानता है [ उसे पूर्बोक्त फल प्राप्त होता है । अब आगे प्रकारान्तर से ब्रह्म की उपासना का वर्णन किया जाता है] ब्रह्मा वाणी में क्षेम ( प्राप्त वस्तु के परिरक्षण ) रूपसे [ स्थित है–इस प्रकार उपासनीय है], योग-क्षेमरूप से प्राण और अपान में, कर्मरूप से हाथों में, गतिरूप से चरणों में और त्यागरूप से वायु में [ उपासनीय है. ] यह मनुष्य सम्बन्धिनी उपासना है । अब देवताओं से सम्बन्धित उपासना कही जाती है—तृप्तिरूप से इष्टि में, बलरूप से विद्युत में ॥ २॥ यशरूप से पशुओं में, ज्योतिरूप से नक्षत्रों में, पुत्रादि प्रजा, अमृततत्व और आनन्दरूप से उपस्थ में तथा सर्वरूप से आकाश में [ ब्रह्म की उपासना करे ] । वह ब्रह्म सबका प्रतिष्ठ ( आधार ) है–इस भाव से उसकी उपासना करे । इससे उपासक प्रतिष्ठावान् होता है | वह मह्ः [ नामक व्याहृति अथवा तेज ] है—इस भाव से उसकी उपासना करे। इससे उपासक महान होता है | वह मन है—इस प्रकार उपासना करें। इससे उपासक मानवान् ( मनन करने में समर्थ ) होता है ॥ ३॥ वह नमः है |
तैत्तिरीय उपनिषद् भृगुवल्ली की अन्य जानकारी | Taittiriya Upanisha Bhraguvalli Ki Anya Jankari
भृगुवल्ली में १० अनुवाक हैं । उनमें वर्णित विषय निम्नलिखित हैं-
अनुवाक १ – भृगु ने अपने पिता से ब्रह्मज्ञान की याचना की । भूत (प्राणी) कैसे उत्पन्न होते हैं? केन आधार से वे जीवित रहते हैं ? किसमें मिल जाते हैं- ये तप द्वारा जानो, ऐसा पिता ने समझाया।
अनुवाक २ – अन्न ही ब्रह्म है- ऐसा पिता ने बताया । पिता पुनः तप करने को कहा।
अनुवाक ३ – वह अपने पिता से कहता है कि जीवन-शक्ति ब्रह्म है। पिता ने उसे तपस्या करने के लिए वापस भेज दिया
अनुवाकः ४ – वह अपने पिता से कहता है कि मन ही ब्रह्म है। उनके पिता ने उन्हें तपस्या करने के लिए वापस भेज दिया।
अनुवाकः ५ – वह अपने पिता से कहता है कि ज्ञान परम सत्य है। उनके पिता ने उन्हें तपस्या करने के लिए वापस भेज दिया।अनुवाकः ६ –वह अपने पिता से कहता है कि आनंद ही ब्रह्म है। यह ज्ञान भार्गवी और वरुणी का ज्ञान है।
अनुवाकः ७ – अन्नं न निन्दितव्यम् । अन्नप्राणयोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः ८ – आपतेजसोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । उभौ अपि अन्नरूपौ एव । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः ९ – पृथ्व्याकाशयोः अन्योन्याश्रयः विद्यते । उभौ अपि अन्नरूपौ एव । अस्य ज्ञाता महिमावान् भवति ।
अनुवाकः १०- आतिथ्यं करणीयम्। देहदेवता पूजयेत्। तृप्तिबाल्टेजप्राप्त्यर्थं दिव्यपूजनं कर्तव्यमिति उक्तम्।