भज गोविंदम् | Bhaj Govindam

भज गोविंदम् | Bhaj Govindam

भज गोविंदम आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है। यह मूल रूप से सरल संस्कृत में बारह छंदों में लिखा गया एक सुंदर भजन है। इसलिए इसे ‘द्वादश मंजारिका’ भी कहते हैं। ‘भज गोविन्दम’ में शंकराचार्य ने संसार से प्रेम किए बिना भगवान कृष्ण (गोविंद) की पूजा करने का उपदेश दिया है। ‘भज गोविन्दम्’ के अनुसार संसार अनित्य है और भगवान का नाम नित्य है। शंकराचार्य ने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय बर्बाद न करके भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा और आसक्ति को त्याग कर ईश्वर की आराधना करने की शिक्षा दी है। इसलिए ‘भज गोविंदम’ को ‘मोहमुद्गर’ यानी ‘भ्रम-निवारक मुद्गर या मोंगरी’ भी कहा जाता है।

भज गोविंदम् स्तोत्र | Bhaj Govindam Stotra

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥1॥

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्, कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्, वित्तं तेन विनोदय चित्तं॥2॥

नारीस्तनभरनाभीदेशम्, दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्, मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥3॥

नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम्॥4॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥5॥

यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥6॥

बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः॥7॥

का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥8॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥9॥

वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः॥10॥

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा, ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥11॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्च्त्याशावायुः॥12॥

द्वादशमंजरिकाभिरशेषः कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः॥12-1॥

काते कान्ता धन गतचिन्ता, वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका, भवति भवार्णवतरणे नौका॥13॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः॥14॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥15॥

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥16॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥17॥

सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः॥18॥

योगरतो वाभोगरतोवा, सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥19॥

भगवद् गीता किञ्चिदधीता, गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा, क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥20॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥21॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः, पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव॥22॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥23॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः, व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्॥24॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्॥25॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः, ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः॥26॥

गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम्॥27॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥28॥

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः॥29॥

प्राणायामं प्रत्याहारं, नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं, कुर्ववधानं महदवधानम्॥30॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं, द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम्॥31॥

मूढः कश्चन वैयाकरणो, डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै, बोधित आसिच्छोधितकरणः॥32॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे॥33॥

सुनें भज गोविंदम् | Listen Bhaj Govindam

भज गोविंदम् || Bhaj Govindam with Lyrics || चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र | Mohamudgara Stotram | Madhvi Madhukar Jha

भज गोविंदम् का अर्थ | Bhaj Govindam Meaning in Hindi

हे मुर्ख मनुष्य, उस परम सत्ता को प्रणाम करो, उसकी स्तुति करो, उसमे अपना समय व्यतीत करो, क्योंकि इस जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है जिसे व्याकरण के नियमो को याद करके टाला नहीं जा सकता है। श्री गोविन्द को भजो, श्री गोविन्द का नाम लो। महज, व्याकरण के नियमो से काम नहीं चलने वाला है।

मुर्ख व्यक्ति की तरहा धन का संग्रह करना और धन का लोभ करना छोड़ो और अपना मन परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उसी में प्रश्नं रहो। व्यर्थ की त्रश्नाओं को छोड़ दो। अपने चित्त को परिश्रम से प्राप्त धन से ही प्रशन्न करो।
नारी के देह से कैसा प्यार, कैसा मोह, ये तो महज मांस के तुकडे जैसा है, उसी से उसके अन्य अंग बने हैं। इसलिए बार बार अपने मन को प्रभु की भक्ति में लगाओं और नारी की चिंता को त्याग दो।
यह जीवन क्षणिक है जैसे की कमल के पत्ते पर बानी की बूँद, पूरा संसार ही त्रश्नाओ, लालसा और अहम् के कारन ही परेशान हैं।

जब तक पुरुष शारीरक रूप से सक्षम होता है तो परिवार के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं। जब उसका शरीर कमजोर हो जाता है, रोग ग्रस्त होने, बूढ़े होने पर कोई भी नजदीक आकर हाल चाल नहीं पूछता है।
जब तक पुरुष शारीरक रूप से सक्षम होता है तो परिवार के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं। जब उसका शरीर कमजोर हो जाता है, रोग ग्रस्त होने, बूढ़े होने पर कोई भी नजदीक आकर हाल चाल नहीं पूछता है।

बचपन में हम खेलने के प्रति आकर्षित रहते हैं, जवानी में किसी औरत से प्रेम हो जाता है और बुढापे में हर बात की चिंता होती है। लेकिन कोई भी किसी भी चरण में इश्वर को याद करने की जहमत नहीं उठाता है।
तुम्हारी कौन पत्नी है, कौन पुत्र है यह बड़े ही आश्चर्य की बात है की तुम कौन हो और कहा से आये हो इस बारे में बार बार सोचो और इस पर विचार करो। तुम्हारा कोई नहीं है।

जब कोई व्यक्ति सच्चे संत जन के संपर्क में आता है तो उसका सांसारिकता से मोह छूटने लगता है और वह ज्ञान की प्राप्ति की और अग्रसर होने लगता है। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति तभी होती है जब कोई संत जन की शरण में जाए। जब संत जन की शरण मिलती है तो ज्ञान की प्राप्ति होती है जो की हमें यह अनुभव करवाता है की इश्वर ही परम सत्य है।

जवानी के बगैर कामना, झील बगैर पानी और रिश्तेदार बिना संपदा के कोई महत्त्व नहीं रखते हैं। इसी की समानता में इस संसार के सभी भौतिक सत्य परम सत्य के ज्ञान के अधूरे हैं, अर्थविहीन है। जब सत्य का उद्घाटन होता है तो सभी विषयों का ज्ञान होने लग जाता है।

धन संपदा के पीछे अंधे होकर मत भागो, धन और शक्ति और जवानी, ये समय के एक झोंके के साथ बहा लिए जायेंगे। यह संसार सब माया की परछाई है इसलिए परम सत्य को पहचानो।
जैसे रात और दिन, धुप और छांया, सर्दी और वसंत, आते जाते रहते हैं, परिवर्तनशील हैं, इसी प्रकार से एक रोज यह जीवन भी समाप्त हो जायेगा लेकिन तृष्णा और लालसाओं का कोई अंत नहीं होता है, वे फिर से किसी को अपने वश में कर लेंगी।

धन और पत्नी की चिंता में दुबे व्यक्ति को सन्देश है की उसके धन और पत्नी को सँभालने वालो की कोई कमी नहीं है, उनकी चिंता क्यों कर रहे हो। केवल संत जन की शरण और संगत ही हमें तीन लोकों से पार कर सकती है।
जिन्होंने गीता को पढ़ा हो और श्री कृष्णा जी की स्तुति की हो, गंगा जल की एक बूंद को पिया हो उस पर मृत्यु का भी कोई असर नहीं होता है। बार बार पैदा होने के इस चक्कर से हे मुरारी मुझे मुक्त करो।

जो परम सत्ता को याद रखता है वह निर्भीक होकर किसी ना थकने वाले बच्चे की तरहा आनंद में रहता है।
तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ? मैं कहा से आया हूँ ? मेरी माता कौन है , मेरा पिता कौन है ? इन सभी विषयों पर गंभीरता से विचार करने के बाद यह संसार अर्थ विहीन लगने लगेगा।

श्री विष्णु सभी में निवास करते हैं इसलिए तुम्हारा गुस्सा अर्थ्विहीं हैं। यदि तुम भगवान् श्री विष्णु जी को समझना चाहते हो तो सदैव एक जैसे चित में रहने का प्रयत्न करो।
अपने चहेतों का प्यार प्राप्त करने की कोशिश मत करो, ना ही दोस्तों, भाइयों और रिश्तेदारों और अपने पुत्र की ही, और ना ही अपने शत्रुओं से लड़ो। अपने आप को सभी में देखो और संघर्ष को समाप्त कर दो।

तृष्णा और लालसाओं को त्याग दो और अपने अस्तित्व को पहचानो। जो इस संसार में रहकर बस तृष्णा के शिकार हैं वो नरक के ही भागी हैं।
अपने मन में परम पिता और शक्ति श्री विष्णु जी को याद रखो और संज जन की संगत में रहो जिससे तुम गरीब और निर्धन जन की मदद कर पाओगे।

हम हमारे शरीर को सांसारिक सुखो को भोगने का एक जरिया मात्र समझते है जो की उचित नहीं है और इसका अंतिम सत्य मृत्यु है। व्यक्ति इस प्रकार के पाप पूर्ण कृत्यों को म्रत्यु प्रांत नहीं छोड़ता है। धन से किसी प्रकार की ख़ुशी नहीं आ सकती है। वह तो एक बूँद ख़ुशी भी नहीं दे सकती है, इसे अपने मस्तिस्क में बैठा लो, याद कर लो। एक अमीर व्यक्ति अपने पुत्र से ही डरा रहता है, धन के कारण। यही नियम धन का चारो तरफ है। जब गुरु के कमल रूपी चरणों में ध्यान लगाओगे तो तुम्हे परम सत्ता के होने का आभास होने लगेगा।

इस प्रकार से जो व्याकरण के नियम याद करने वाले जब श्री शंकराचार्य से मिलने के उपरान्त सब भूल कर परम सत्ता के प्रति रुख करते है।

भज गोविंदम स्तोत्र का महत्त्व | Bhaj Govindam Stotra Ka Mahattva

इस प्रार्थना में, आदि शंकराचार्य आध्यात्मिक विकास और जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति के साधन के रूप में भगवान के लिए भक्ति के महत्व पर जोर देते हैं। प्रार्थना में कोई संदेह नहीं है कि हमारे अहंकारी मतभेदों का त्याग और भगवान के प्रति समर्पण मोक्ष के लिए बनाता है। कई विद्वानों का मानना ​​है कि यह रचना आदि शंकराचार्य द्वारा लिखी गई अन्य सभी रचनाओं में पाए जाने वाले सभी वेदांतिक विचारों के सार को संक्षिप्तता और सरलता दोनों के साथ समाहित करती है। “भज गोविंदम” जो रचना को परिभाषित करता है और उसका नाम देता है, सर्वोच्च भगवान श्री कृष्ण के पहलू में सर्वशक्तिमान का आह्वान करता है; इसलिए यह न केवल श्री आदि शंकराचार्य के तत्काल अनुयायियों, स्मार्टस, बल्कि वैष्णवों और अन्य लोगों के साथ भी बहुत लोकप्रिय है।

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