श्री हयग्रीव स्तोत्रम | Shri Hayagreeva Stotram
श्री हयग्रीव स्तोत्रम् के रचियता संत श्री वेंकटेशिका जी ने की हैं ! हायाग्रिवा में हया का मतलब है घोड़े और ग्रिवा का अर्थ है गर्दन ! यंहा घोड़े को भगवान श्री विष्णु जी के रूप का सामना करना पड़ता हैं ! राक्षस मधु और काइताभा ने ब्रह्मा से वेदों को चुरा लिया था उसे वापस लाने के लिए भगवान श्री विष्णु जी को हयग्रीव का अवतार लेना पडा ! श्री हयग्रीव स्तोत्रम् का जो भी व्यक्ति नियमित रूप से पाठ करता है उसकी बुद्दि तेज़ व् तीव्र हो जाती हैं !
ज्ञानानंदमयं देवं निर्मलस्फटिकाकृतिं
आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे ॥1॥
स्वतस्सिद्धं शुद्धस्फटिकमणिभू भृत्प्रतिभटं
सुधासध्रीचीभिर्द्युतिभिरवदातत्रिभुवनं
अनंतैस्त्रय्यंतैरनुविहित हेषाहलहलं
हताशेषावद्यं हयवदनमीडेमहिमहः ॥2॥
समाहारस्साम्नां प्रतिपदमृचां धाम यजुषां
लयः प्रत्यूहानां लहरिविततिर्बोधजलधेः
कथादर्पक्षुभ्यत्कथककुलकोलाहलभवं
हरत्वंतर्ध्वांतं हयवदनहेषाहलहलः ॥3॥
प्राची संध्या काचिदंतर्निशायाः
प्रज्ञादृष्टे रंजनश्रीरपूर्वा
वक्त्री वेदान् भातु मे वाजिवक्त्रा
वागीशाख्या वासुदेवस्य मूर्तिः ॥4॥
विशुद्धविज्ञानघनस्वरूपं
विज्ञानविश्राणनबद्धदीक्षं
दयानिधिं देहभृतां शरण्यं
देवं हयग्रीवमहं प्रपद्ये ॥5॥
अपौरुषेयैरपि वाक्प्रपंचैः
अद्यापि ते भूतिमदृष्टपारां
स्तुवन्नहं मुग्ध इति त्वयैव
कारुण्यतो नाथ कटाक्षणीयः ॥6॥
दाक्षिण्यरम्या गिरिशस्य मूर्तिः-
देवी सरोजासनधर्मपत्नी
व्यासादयोऽपि व्यपदेश्यवाचः
स्फुरंति सर्वे तव शक्तिलेशैः ॥7॥
मंदोऽभविष्यन्नियतं विरिंचः
वाचां निधेर्वांछितभागधेयः
दैत्यापनीतान् दययैन भूयोऽपि
अध्यापयिष्यो निगमान्नचेत्त्वम् ॥8॥
वितर्कडोलां व्यवधूय सत्त्वे
बृहस्पतिं वर्तयसे यतस्त्वं
तेनैव देव त्रिदेशेश्वराणा
अस्पृष्टडोलायितमाधिराज्यम् ॥9॥
अग्नौ समिद्धार्चिषि सप्ततंतोः
आतस्थिवान्मंत्रमयं शरीरं
अखंडसारैर्हविषां प्रदानैः
आप्यायनं व्योमसदां विधत्से ॥10॥
यन्मूल मीदृक्प्रतिभातत्त्वं
या मूलमाम्नायमहाद्रुमाणां
तत्त्वेन जानंति विशुद्धसत्त्वाः
त्वामक्षरामक्षरमातृकां त्वाम् ॥11॥
अव्याकृताद्व्याकृतवानसि त्वं
नामानि रूपाणि च यानि पूर्वं
शंसंति तेषां चरमां प्रतिष्ठां
वागीश्वर त्वां त्वदुपज्ञवाचः ॥12॥
मुग्धेंदुनिष्यंदविलोभनीयां
मूर्तिं तवानंदसुधाप्रसूतिं
विपश्चितश्चेतसि भावयंते
वेलामुदारामिव दुग्ध सिंधोः ॥13॥
मनोगतं पश्यति यस्सदा त्वां
मनीषिणां मानसराजहंसं
स्वयंपुरोभावविवादभाजः
किंकुर्वते तस्य गिरो यथार्हम् ॥14॥
अपि क्षणार्धं कलयंति ये त्वां
आप्लावयंतं विशदैर्मयूखैः
वाचां प्रवाहैरनिवारितैस्ते
मंदाकिनीं मंदयितुं क्षमंते ॥15॥
स्वामिन्भवद्द्यानसुधाभिषेकात्
वहंति धन्याः पुलकानुबंदं
अलक्षिते क्वापि निरूढ मूलं
अंग्वेष्वि वानंदथुमंकुरंतम् ॥16॥
स्वामिन्प्रतीचा हृदयेन धन्याः
त्वद्ध्यानचंद्रोदयवर्धमानं
अमांतमानंदपयोधिमंतः
पयोभि रक्ष्णां परिवाहयंति ॥17॥
स्वैरानुभावास् त्वदधीनभावाः
समृद्धवीर्यास्त्वदनुग्रहेण
विपश्चितोनाथ तरंति मायां
वैहारिकीं मोहनपिंछिकां ते ॥18॥
प्राङ्निर्मितानां तपसां विपाकाः
प्रत्यग्रनिश्श्रेयससंपदो मे
समेधिषीरं स्तव पादपद्मे
संकल्पचिंतामणयः प्रणामाः ॥19॥
विलुप्तमूर्धन्यलिपिक्रमाणा
सुरेंद्रचूडापदलालितानां
त्वदंघ्रि राजीवरजःकणानां
भूयान्प्रसादो मयि नाथ भूयात् ॥20॥
परिस्फुरन्नूपुरचित्रभानु –
प्रकाशनिर्धूततमोनुषंगा
पदद्वयीं ते परिचिन्महेऽंतः
प्रबोधराजीवविभातसंध्याम् ॥21॥
त्वत्किंकरालंकरणोचितानां
त्वयैव कल्पांतरपालितानां
मंजुप्रणादं मणिनूपुरं ते
मंजूषिकां वेदगिरां प्रतीमः ॥22॥
संचिंतयामि प्रतिभादशास्थान्
संधुक्षयंतं समयप्रदीपान्
विज्ञानकल्पद्रुमपल्लवाभं
व्याख्यानमुद्रामधुरं करं ते ॥23॥
चित्ते करोमि स्फुरिताक्षमालं
सव्येतरं नाथ करं त्वदीयं
ज्ञानामृतोदंचनलंपटानां
लीलाघटीयंत्रमिवाऽऽश्रितानाम् ॥24॥
प्रबोधसिंधोररुणैः प्रकाशैः
प्रवालसंघातमिवोद्वहंतं
विभावये देव स पुस्तकं ते
वामं करं दक्षिणमाश्रितानाम् ॥25॥
तमां सिभित्त्वाविशदैर्मयूखैः
संप्रीणयंतं विदुषश्चकोरान्
निशामये त्वां नवपुंडरीके
शरद्घनेचंद्रमिव स्फुरंतम् ॥26॥
दिशंतु मे देव सदा त्वदीयाः
दयातरंगानुचराः कटाक्षाः
श्रोत्रेषु पुंसाममृतंक्षरंतीं
सरस्वतीं संश्रितकामधेनुम् ॥27॥
विशेषवित्पारिषदेषु नाथ
विदग्धगोष्ठी समरांगणेषु
जिगीषतो मे कवितार्किकेंद्रान्
जिह्वाग्रसिंहासनमभ्युपेयाः ॥28॥
त्वां चिंतयन् त्वन्मयतां प्रपन्नः
त्वामुद्गृणन् शब्दमयेन धाम्ना
स्वामिन्समाजेषु समेधिषीय
स्वच्छंदवादाहवबद्धशूरः ॥29॥
नानाविधानामगतिः कलानां
न चापि तीर्थेषु कृतावतारः
ध्रुवं तवाऽनाध परिग्रहायाः
नव नवं पात्रमहं दयायाः ॥30॥
अकंपनीयान्यपनीतिभेदैः
अलंकृषीरन् हृदयं मदीयम्
शंका कलंका पगमोज्ज्वलानि
तत्त्वानि सम्यंचि तव प्रसादात् ॥31॥
व्याख्यामुद्रां करसरसिजैः पुस्तकं शंखचक्रे
भिभ्रद्भिन्न स्फटिकरुचिरे पुंडरीके निषण्णः ।
अम्लानश्रीरमृतविशदैरंशुभिः प्लावयन्मां
आविर्भूयादनघमहिमामानसे वागधीशः ॥32॥
वागर्थसिद्धिहेतोःपठत हयग्रीवसंस्तुतिं भक्त्या
कवितार्किककेसरिणा वेंकटनाथेन विरचितामेताम् ॥33॥
श्री हयग्रीव पूजा विधि | Shri Hayagreeva Puja vidhi
श्री हयग्रीव जी का पूजन करते समय पूर्व दिशा व उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाएं । सर्वप्रथम भगवान श्री गणेश जी का पूजन करें । श्री गणेश जी को स्नान कराकर उन्हें वस्त्र अर्पित करें । गंध, पुष्प , धूप ,दीप, अक्षत से पूजन करें । उसके बाद अब भगवान श्री हयग्रीव करें । पहले श्री हयग्रीव जी को पंचामृत व् जल से स्नान कराएं । उन्हें वस्त्र अर्पित करें । वस्त्रों के बाद आभूषण पहनाएं । अब पुष्पमाला पहनाएं । अब तिलक करें । “ॐ नमो भगवते आत्मविशोधनाय नमः” मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हयग्रीव जी को तिलक लगाएं । इसके पश्चात अपने हाथ में चावल व फूल लें व इस मंत्र का उच्चारण करते हुए श्री हयग्रीव जी का ध्यान करें :
हयग्रीव अवतार की कथा | Hayagreeva Avtar Ki Katha
एक बार माता लक्ष्मी की सुंदरता को देखकर भगवान विष्णु मुस्कुराने लगे परन्तु माता लक्ष्मी को लगा कि वे उनका उपहास कर रहे हैं। माता लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दिया कि आपका शीश आपके धड़ से विलग होकर अदृश्य हो जाएगा। उसी समय प्रजापति कश्यप और उनकी पत्नी दनु के पुत्र और असुरों के राजा हयग्रीव (जिसका सिर अश्व का और धड़ मनुष्य का था) ने माता पार्वती की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर माता पार्वती ने उसे वरदान मांगने को कहा उसने कहा कि “माता मुझे अमरत्व प्रदान कीजिए”। उसकी ये इच्छा सुनकर माता बोली कि हे असुर राज विधि के विधान के अनुसार जो प्राणी जन्मा है उसकी मृत्यु अवश्य होगी”। वह बोला कि “माता मेरी इच्छा है कि हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो”। माता तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गई। इस वरदान के फलस्वरूप उसने ऋषि मुनियों को सताना शुरू कर दिया एवम् ब्रह्मा जी से वेदों को चुरा ले गया। वेदों के ज्ञान से संसार में अंधकार छा गया। वेदों को चुराने के बाद हयग्रीव ने भगवान श्री हरि विष्णु को युद्ध के लिए ललकारा। भगवान विष्णु उससे युद्ध करने के लिए गए तो उसने अनेकों अस्त्रों से भगवान विष्णु पर प्रहार किया। लेकिन भगवान ने उसके सभी अस्त्रों का प्रतिकार कर दिया। दोनों को अब युद्ध करते हुए एक सप्ताह हो गया था आठवें दिन दोनों थककर विश्राम करने लगे। भगवान विष्णु को धनुष की प्रत्यंचा पर विश्राम करते देखकर ब्रह्मा जी ने अपने तेज़ से एक कीड़ा उत्पन्न किया और उसे नारायण के धनुष की प्रत्यंचा काटने को कहा। उसने ऐसा ही किया लेकिन प्रत्यंचा काटने से एक जोर दार आवाज हुई और भगवान का सिर उनके धड़ से अलग हो गया। उसी समय माता पार्वती द्वारा आकाश वाणी हुई और उन्होंने ब्रह्मा जी से एक घोड़े का मस्तक लाने को कहा। ब्रह्मा जी एक नील वर्ण के अश्व का मस्तक ले आए और अश्विनी कुमारों का भी स्मरण किया गया दोनों ने भगवान के धड़ से उस घोड़े की गर्दन का जुड़ाव किया और भगवान का हयग्रीव अवतार हुआ। भगवान विष्णु ने इसी रूप में हयग्रीव से युद्ध कर उसे मार डाला और वेदों को ब्रह्मा जी को सौंप दिया।
Frequently Asked Questions (FAQ)
श्री हयग्रीव स्तोत्रम क्या है? | What Is Shri Hayagreeva Stotram ?
श्री हयग्रीव स्तोत्रम् के रचियता संत श्री वेंकटेशिका जी ने की हैं ! हायाग्रिवा में हया का मतलब है घोड़े और ग्रिवा का अर्थ है गर्दन ! यंहा घोड़े को भगवान श्री विष्णु जी के रूप का सामना करना पड़ता हैं ! राक्षस मधु और काइताभा ने ब्रह्मा से वेदों को चुरा लिया था उसे वापस लाने के लिए भगवान श्री विष्णु जी को हयग्रीव का अवतार लेना पडा ! श्री हयग्रीव स्तोत्रम् का जो भी व्यक्ति नियमित रूप से पाठ करता है उसकी बुद्दि तेज़ व् तीव्र हो जाती हैं !
क्या स्त्री श्री हयग्रीव स्तोत्रम का पाठ कर सकती हैं? Can ladies chant Shri Hayagreeva Stotram?
जी हाँ! ”श्री हयग्रीव स्तोत्रम” भगवान श्री हरी विष्णु को समर्पित एक बहुत एक शक्तिशाली मंत्र संग्रह है। साधक आध्यात्मिक उन्नति तथा मानसिक शांति के लिए इसका नियमित रूप से पाठ करते हैं। इसके नियमित रूप से पाठ करने से नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश होता है। जीवन में सकारात्मक ऊर्जा आती है। इसका प्रयोग या जाप से भगवान श्री हरी विष्णु की कृपा भी होती है |