विश्वकर्मा सूक्तम | Vishvakarma Suktam
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त 81 व 82 दोनों सूक्त विश्वकर्मा सूक्त है। इनमें प्रत्येक में सात-सात मंत्र है। इन सब मत्रों के ऋषि और देवता भुवनपुत्र विश्वकर्मा ही हैं। ये ही चौदह मत्रं यजुर्वेद अध्याय के 17वें में मत्रं 17 से 32 तक आते हैं, जिसमें से केवल दो मंत्र 24वां और 32वां अधिक महत्वपुर्ण है। प्रत्येक मागंलिक पर्व यज्ञ में गृह प्रवेश करते समय, किसी भी नवीन कार्य के शुभारम्भ पर, विवाह आदि सस्कांरो के समय इनका पाठ अवश्य करना चाहिए।
विश्वकर्मा सूक्तम स्तोत्र | Vishvakarma Suktam Stotra
य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒दृषि॒र्होता॑ निष॒सादा॑ पि॒ता नः॑ ।
स आ॒शिषा॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नः परम॒च्छदो॒ वर॒ आ वि॑वेश ॥ 1
वि॒श्वक॑र्मा॒ मन॑सा॒ यद्विहा॑या धा॒ता वि॑धा॒ता प॑र॒मोत सं॒दृक् ।
तेषा॑मि॒ष्टानि॒ समि॒षा म॑दंति॒ यत्र॑ सप्त॒र्षीन्प॒र एक॑मा॒हुः ॥ 2
यो नः॑ पि॒ता ज॑नि॒ता यो वि॑धा॒ता यो नः॑ स॒तो अ॒भ्या सज्ज॒जान॑ ।
यो दे॒वानां॑ नाम॒धा एक॑ ए॒व तग्ं सं॑प्र॒श्नंभुव॑ना यंत्य॒न्या ॥ 3
त आय॑जंत॒ द्रवि॑ण॒ग्ं सम॑स्मा॒ ऋष॑यः॒ पूर्वे॑ जरि॒तारो॒ न भू॒ना ।
अ॒सूर्ता॒ सूर्ता॒ रज॑सो वि॒माने॒ ये भू॒तानि॑ स॒मकृ॑ण्वन्नि॒मानि॑ ॥ 4
न तं-विँ॑दाथ॒ य इ॒दं ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मंत॑रंभवाति ।
नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ उक्थ॒शास॑श्चरंति ॥ 5
प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्या प॒रो दे॒वेभि॒रसु॑रै॒र्गुहा॒ यत् ।
कग्ं स्वि॒द्गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छंत॒ विश्वे ॥ 6
तमिद्गर्भं॑प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छंत॒ विश्वे॑ ।
अ॒जस्य॒ नाभा॒वध्येक॒मर्पि॑तं॒-यँस्मि॑न्नि॒दं-विँश्वं॒भुवन॒मधि॑ श्रि॒तम् ॥ 7
वि॒श्वक॑र्मा॒ ह्यज॑निष्ट दे॒व आदिद्गं॑ध॒र्वो अ॑भवद्द्वि॒तीयः॑ ।
तृ॒तीयः॑ पि॒ता ज॑नि॒तौष॑धीनाम॒पां गर्भं॒-व्यँ॑दधात्पुरु॒त्रा ॥ 8
चक्षु॑षः पि॒ता मन॑सा॒ हि धीरो॑ घृ॒तमे॑ने अजन॒न्नन्न॑माने ।
य॒देदंता॒ अद॑दृग्ंहंत॒ पूर्व॒ आदिद्द्यावा॑पृथि॒वी अ॑प्रथेताम् ॥ 9
वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑हस्त उ॒त वि॒श्वत॑स्पात् ।
संबा॒हुभ्यां॒ नम॑ति॒ संपत॑त्रै॒र्द्यावा॑पृथि॒वी ज॒नयं॑दे॒व एकः॑ ॥ 10
किग्ं स्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रंभ॑णं कत॒मत्स्वि॒त्किमा॑सीत् ।
यदी॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न्वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्यामौर्णो॑न्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः ॥ 11
किग्ं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑सी॒द्यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः ।
मनी॑षिणो॒ मन॑सा पृ॒च्छतेदु॒ तद्यद॒ध्यति॑ष्ठ॒द्भुव॑नानि धा॒रयन्॑ ॥ 12
या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा ।
शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं-यँ॑जस्व त॒नुवं॑ जुषा॒णः ॥ 13
वा॒चस्पतिं॑-विँ॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒युजं॒-वाँजे॑ अ॒द्या हु॑वेम ।
स नो॒ नेदि॑ष्ठा॒ हव॑नानि जोषते वि॒श्वशं॑भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्मा ॥ 14
विश्व॑कर्मन्ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं-यँ॑जस्व त॒नुवं॑ जुषा॒णः ।
मुह्यं॑त्व॒न्ये अ॒भितः॑ स॒पत्ना॑ इ॒हास्माक॑म्म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु ॥ 15
विश्व॑कर्मन्ह॒विषा वर्ध॑नेन त्रा॒तार॒मिंद्र॑मकृणोरव॒ध्यम् ।
तस्मै॒ विशः॒ सम॑नमंत पू॒र्वीर॒यमु॒ग्रो वि॑ह॒व्यो॑ यथास॑त् ॥ 16
स॒मु॒द्राय॑ व॒युना॑य॒ सिंधू॑नां॒पत॑ये॒ नमः॑ ।
न॒दीना॒ग्ं सर्वा॑सांपि॒त्रे जु॑हु॒ता
वि॒श्वक॑र्मणे॒ विश्वाहाम॑र्त्यग्ं ह॒विः ।
सुनें विश्वकर्मा सूक्तम स्तोत्र | Listen Vishvakarma Suktam Stotra
भगवान विश्वकर्मा के बारे में अन्य जानकारी
भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया। श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया। प्रजा का ठीक सुचारु रूप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया। बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की। उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया। यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया। आदि शिल्पी विश्वकर्मा को सृजन व निर्माण का देवता माना जाता है। उनकी पूजा का अर्थ यह है कि सृजन व निर्माण के द्वारा हम अपने देश की समृद्धि का हित चिंतन करें। शायद यही कारण है कि हमारी संस्कृति ने विश्वकर्मा पूजा का विधान रखा, ताकि हम अपने देश की समृद्धि का हित चिंतन कर सकें और स्वयं को आदि शिल्पी विश्वकर्मा के गुणों की कसौटी पर खुद को परख सकें। साधन, औजार, युक्ति व निर्माण के देवता कहे जाने वाले विश्वकर्मा जी के बारे में कुछ विद्वान इस नाम को एक उपाधि मानते हैं। इसका आधार संस्कृत साहित्य में कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है। कालांतर में भले ही विश्वकर्मा एक उपाधि हो गई हो, परंतु आदि (पहले) विश्वकर्मा के बारे में भी विद्वानों में एकमत नहीं। कुछ विद्वान अंगिरा पुत्र सुधन्वा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं तो कुछ भुवन पुत्र भौवन विश्वकर्मा को। ऋग्वेद में विश्वकर्मा सूक्त के नाम से 11 ऋचाएं लिखी हुई हैं, जिनके प्रत्येक मंत्र पर लिखा है- ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता। यही सूक्त यजुर्वेद अध्याय 17ए सूक्त मंत्र 16 से 31 तक 16 मंत्रों में आया है। ऋग्वेद में विश्वकर्मा शब्द इंद्र व सूर्य का विशेषण बनकर भी प्रयुक्त हुआ है। परवर्ती वेदों में यह प्रजापति का भी विशेषण बनकर आया है। महाभारत और सभी पुराणों के रचयिता प्रभात पुत्र विश्वकर्मा को आदि विश्वकर्मा मानते हैं। स्कंद पुराण प्रभात खंड के निम्न श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है:
बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी ।
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापति:।
अर्थात महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। विश्वकर्मा को देवताओं का वह आचार्य माना जाता है, जिन्होंने शिल्पशास्त्र को उत्पन्न किया। यही कारण है कि सभी कारीगरों व शिल्पियों के वे भगवान हैं और शिल्प संकायों, कारखानों, उद्योगों, इंजीनियरिंग संस्थानों आदि में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर को विश्वकर्मा पूजा की जाती है। हम सिर्फ विश्वकर्मा की पूजा ही नहीं करते, बल्कि पूजा के माध्यम से हम अपने देश की उत्पादन वृद्धि और राष्ट्रीय समृद्धि के लिए चिंतन करते हैं और उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि का संकल्प लेते हैं।