यज्ञोपवीत धारण | Yagyopaveet Dharan
उपनयन संस्कार (Yagyopaveet Dharan) जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता।
“गायंतं त्रायते इति गायत्री”
ॐ भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥
तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि ।
धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥
1। शरीर शुद्धि
श्लो॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां᳚ गतोऽपिवा ।
यः स्मरेत् पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरश्शुचिः ॥
2। आचमनम्
ॐ आचम्य । ॐ केशवाय स्वाहा । ॐ नारायणाय स्वाहा । ॐ माधवाय स्वाहा । ॐ गोविंदाय नमः । ॐ-विँष्णवे नमः । ॐ मधुसूदनाय नमः । ॐ त्रिविक्रमाय नमः । ॐ-वाँमनाय नमः । ॐ श्रीधराय नमः । ॐ हृषीकेशाय नमः । ॐ पद्मनाभाय नमः । ॐ दामोदराय नमः । ॐ संकर्षणाय नमः । ॐ-वाँसुदेवाय नमः । ॐ प्रद्युम्नाय नमः । ॐ अनिरुद्धाय नमः । ॐ पुरुषोत्तमाय नमः । ॐ अधोक्षजाय नमः । ॐ नारसिंहाय नमः । ॐ अच्युताय नमः । ॐ जनार्धनाय नमः । ॐ उपेंद्राय नमः । ॐ हरये नमः । ॐ श्रीकृष्णाय नमः । ॐ श्रीकृष्ण परब्रह्मणे नमो नमः ।
3। भूतोच्चाटन
उत्तिष्ठंतु । भूत पिशाचाः । ये ते भूमिभारकाः ।
ये तेषामविरोधेन । ब्रह्मकर्म समारभे । ॐ भूर्भुवस्सुवः ।
4। प्राणायामम्
ॐ भूः । ॐ भुवः । ओग्ं सुवः । ॐ महः । ॐ जनः । ॐ तपः । ओग्ं स॒त्यम् ।
ॐ तथ्स॑वि॒तुर्वरे᳚ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि ।
धियो॒ यो नः॑ प्रचोदया᳚त् ॥
ओमापो॒ ज्योती॒ रसो॒ऽमृतं॒ ब्रह्म॒ भू-र्भुव॒-स्सुव॒रोम् ॥ (तै. अर. 10-27)
5। संकल्पम्
ममोपात्त, दुरितक्षयद्वारा, श्री परमेश्वर प्रीत्यर्थं, शुभे, शोभनेमुहूर्ते, महाविष्णोराज्ञया, प्रवर्तमानस्य अद्यब्रह्मणः द्वितीयपरार्थे, श्वेतवराहकल्पे, वैवश्वतमन्वंतरे, कलियुगे, प्रथमपादे, जंभूद्वीपे, भरतवर्षे, भरतखंडे, अस्मिन् वर्तमान व्यावहारिक चांद्रमानेन ——- संवँत्सरे —— अयने ——- ऋतौ ——- मासे ——- पक्षे ——- तिधौ —— वासरे ——– शुभनक्षत्रे (भारत देशः – जंबू द्वीपे, भरत वर्षे, भरत खंडे, मेरोः दक्षिण/उत्तर दिग्भागे; अमेरिका – क्रौंच द्वीपे, रमणक वर्षे, ऐंद्रिक खंडे, सप्त समुद्रांतरे, कपिलारण्ये) शुभयोगे शुभकरण एवंगुण विशेषण विशिष्ठायां शुभतिथौ श्रीमान् ——– गोत्रस्य ——- नामधेयस्य (विवाहितानाम् – धर्मपत्नी समेतस्य) श्रीमतः गोत्रस्य ममोपात्तदुरितक्षयद्वारा श्रीपरमेस्वर प्रीत्यर्धं मम सकल श्रौतस्मार्त नित्यकर्मानुष्ठान योग्यताफलसिध्यर्धं नूतन यज्ञोपवीतधारणं करिष्ये ।
6। यज्ञोपवीत धारण
यज्ञोपवीत प्राण प्रतिष्ठापनं करिष्ये।
श्लो॥ ॐ असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनःप्राणमिह नो धेहि भोगम् ।
ज्योक्पश्येम सूर्यमुच्चरं तमनुमते मृडया नः स्स्वस्ति ॥ ऋ.वे. – 10.59.6
अमृतं-वैँ प्राणा अमृतमापः प्राणानेव यथास्थानमुपह्वयते ।
7। यज्ञोपवीत मंत्रम्
श्लो॥ यज्ञोपवीते तस्य मंत्रस्य परमेष्टि परब्रह्मर्षिः ।
परमात्म देवता, देवी गायत्रीच्छंदः ।
यज्ञोपवीत धारणे विनियोगः ॥
8। यज्ञोपवीत धारण मंत्रम्
श्लो॥ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं-यँज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ॥
9। जीर्ण यज्ञोपवीत विसर्जन
श्लो॥ उपवीतं छिन्नतंतुं जीर्णं कश्मलदूषितं
विसृजामि यशो ब्रह्मवर्चो दीर्घायुरस्तु मे ॥
ॐ शांति शांति शांतिः
चतुस्सागर पर्यंतं गो ब्राह्मणेभ्यः शुभं भवतु ।
———- प्रवरान्वित ——— गोत्रोत्पन्न ——— शर्म ——— अहं भो अभिवादये ।
समर्पण
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपस्संध्या क्रियादिषु
न्यूनं संपूर्णतां-याँति सद्यो वंदे तमच्युतम् ।
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं रमापते
यत्कृतं तु मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥
अनेन यज्ञोपवीत धारणेन, श्री लक्ष्मीनारायण प्रेरणाय, श्री लक्ष्मीनारायण प्रीयंतां-वँरदो भवतु ।
श्री कृष्णार्पणमस्तु ॥
कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा बुद्ध्याஉत्मना वा प्रकृते स्स्वभावात् ।
करोमि यद्यत्सकलं परस्मै श्रीमन्नारायणायेति समर्पयामि ॥
यज्ञोपवीत धारण करने की विधि | Yagyopaveet Dharan Karne Ki Vidhi Puja
यज्ञोपवीत धारण करने का एक विशेष विधान है | सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है की जनेऊ कितनी लम्बी होनी चाहिए | कात्यायन के अनुसार यज्ञोपवीत कमर तक ( कटि भाग ) तक होनी चाहिए। यज्ञोपवीत अधिक लम्बी नहीं होनी चाहिए। वशिष्ठ के अनुसार नाभि के ऊपर यज्ञोपवीत होने से अर्थात बहुत छोटी यज्ञोपवीत होने से आयु नाश होता है। नाभि के निचे होने से तपबल क्षय होता है। अतः सदैव यज्ञोपवीत नाभि के समान अर्थात नाभि के बराबर मात्रा में धारण करनी चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करने के आवश्यक सामग्री में यज्ञोपवीत नाभि के बराबर 1 अक्षत तथा टिका लगाने के लिए एक छोटी कटोरी भरकर चन्दन।
यज्ञोपवीत धारण करने लाभ | Yagyopaveet Dharan Karne Ke Labh
यज्ञोपवीत धारण करने के अनेक लाभ है जो निम्नवत है:-
- जनेऊ यानि दूसरा जन्म (पहले माता के गर्भ से दूसरा धर्म में प्रवेश से) माना गया है।
- जनेऊ धारण करने से आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है।
- जनेऊ धारण करने से शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है।
- जनेऊ से नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को पूर्ण करने का आत्म बल मिलता है।
- जनेऊ के तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं।
- यज्ञोपवीत संस्कार बिना विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा अथवा व्यापार करना सभी निर्थरक है।
- जनेऊ के तीन धागों में 9 लड़ होती है, फलस्वरूप जनेऊ पहनने से 9 ग्रह प्रसन्न रहते हैं।
Frequently Asked Questions (FAQ)
यज्ञोपवीत क्या है? | What Is Yagyopaveet ?
यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है।
यज्ञोपवीत का महत्व क्या है ? What is the importance of Yagyopaveet?
जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है, इसे प्रवर कहते हैैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है। प्रवर की संख्या १, ३ और ५ होती है।