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सम्पूर्ण कल्कि पुराण : हिंदी ऑडियो बुक | Sampurn Kalki Puran : Hindi Audiobook

सम्पूर्ण कल्कि पुराण : हिंदी ऑडियो बुक | Sampurn Kalki Puran : Hindi Audiobook
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Sampurn Kalki Puran Hindi Audiobook का संक्षिप्त विवरण : भारतीय जीवन-धार में जिन ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है, उनमें पुराण, भक्ति-्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य भारतीय जीवन और संस्कृति की अक्षुण्ण निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद युग अर्थात ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात्‌ भक्ति का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन ऊर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानातमक चिंतन के बाद भक्ति की अविस्ल घारा प्रवाहित हुई। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरुपासक व्याख्या से धीरे धीरे भारतीय मानस अवताखाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराण साहित्य सामान्यतया सगुण भक्ति का प्रतिपादन करता है। यही आकर हमें यह भी मालूम होता है कि सृष्टि के रहस्यों के विषय में भारतीय मनीषा ने कितना चिंतन और मनन किया है। पुराण साहित्य को केवल धार्मिक और कथा कहकर छोड़ देना उस पूरी चिंतन घारा से अपने को अपरिचित रखना होगा, जिसे जाने बिना हम वास्तविक रूप में अपनी संस्कृति और परंपरा को नहीं जान सकते।

परंपरा का ज्ञान किसी भी स्तर पर बहुत आवश्यक होता है। क्योंकि परंपरा से अपने को संबद्ध कला और तब आधुनिक होकर उससे मुक्त होना बौद्धिक विकास की एक प्रक्रिया है। हमारे पुराण साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, मानव उत्पत्ति और फिर उसके विविध विकासात्मक सोपान इस तरह से दिए गए हैं कि यदि उनसे चमकदार और अतिरिक्त विश्वास के अंश ध्यान में न रखे जाएँ तो अनेक बातें बहुत कुछ विज्ञानसम्मत भी हो सकती हैं। क्योंकि जहां तक सृष्टि के रहस्य का प्रश्न है, विकासवाद के सिद्धांत के बावजूद और वैज्ञानिक जानकारी के होने परभी, वह अभी तक मनुष्य की बुद्धि के लिए एक चुनौती है। इसलिए जिन बातों का वर्णन सृष्टि के संदर्भ में पुराण-साहित्य में हुआ है, उसे एकाएक पूरी तरह से नहीं नकारा जा सकता। महर्षि वेदव्यास को 18 पुराणों की रचना का श्रेय है। महाभारत के रचयिता भी वेदव्यास हैं। वेदव्यास एक व्यक्ति रहे होंगे या एक पौठ, यह प्रश्न दूसरा है। और यह भी बात अलग है कि सारे पुराण कथोपकथन शैली में विकासशील रचनाएं हैं। इसलिए उनके मूल रूप में परिवर्तन होता गया। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो ये पुराण विश्वास की उस भूमि पर अधिष्ठित हैं, जहा इतिहास, भूगोल का तर्क उतना नहीं रहता जितना उसमें व्यक्त जीवन-सूल्यों का स्वरूप। यह बात दूसरी है जिन जीवन-मूल्यों की स्थापना उस काल के साहित्य में की गईं, वे आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक रह गए हैं? लेकिन साथ में यह भी कहना होगा कि धर्म और धर्म का आस्थामूलक व्यवहार किसी तर्क और मूल्यवत्ता की प्रासंगिकता की अपेक्षा नहीं करता। उससे एक ऐसा आत्मविश्वास और आत्मालोक जन्म लेता है, जिससे मानव का आतरिक उत्कर्ष होता है। और हम कितनी भी भौतिक और वैज्ञानिक उनति कर लें, अंतत: आस्था की तुलना में यह उन्नति अधिक देर नहीं ठहरती। इसलिए इन पुराणों का महत्त्व तर्क पर अधिक आधारित न होकर भावना और विश्वास पर आधारित है और इन्हीं अ्थों में इसका महत्त्व है। जैसा कि हमने कहा कि पुराण-साहित्य में अवतारवाद की प्रतिष्ठा है। निर्मुण निराकार की सत्ता को मानते हुए साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है। 18 पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म तथा कर्म और अकर्म की गाथाएं कही गई हैं। इन सबसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टिका आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कहीं-न-कहीं सदगुणों की प्रतिष्ठा होनी ही चाहिए। आधुनिक जीवन में संघर्ष की अनेक भावभूमियों पर आने के बाद भी विशिष्ट मानव अपनी अर्थवत्ता नहीं खो सकते। त्याग, प्रेम, भक्ति, सेवा, सहनशीलता आदि ऐसे मानव गुण हैं जिनके अभाव में किसी भी बेहतर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए भिन-भिन्‍न पुराणों में देवताओं के विभिन्‍न स्वरुपों को लेकर मूल्य के स्तर पर एक विराट आयोजन मिलता है। एक बात और आश्चर्यजनक रुप से पुराणों में मिलती है, वह यह कि सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण कले में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटा और उसने देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रुप में चित्रित किया है। लेकिन उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
पुराणों में कलियुग का जैसा वर्णन मिलता है, आज हम लगभग वैसा ही समय देख रहे हैं। अतः यह तो निश्चित है कि पुराणकार ने समय के विकास में वृत्तियों को और वृत्तियों के विकास को बहुत ठीक तरह से पहचाना। इस रूप में पुराणों का पठन और आधुनिक जीवन की सीमा में मूल्यों का स्थापन आज के मनुष्य को एक दिशा तो दे सकता है क्योंकि आधुनिक जीवन में अंधविश्वास का विरोध कसा तो तर्कपूर्ण है लेकिन विश्वास का विरोध कला आत्महत्या के समान है। इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है, उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का दंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस ढंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतरदंद्र और निरंतर दंदव से मुक्ति का प्रयास, मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं, यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य प्रस्तुत कले का प्रयास किया है। इसमें हम केवल प्रस्तोता हैं, लेखक नहीं। जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रुप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।

पुस्तक का विवरण / Book Details
AudioBook Name सम्पूर्ण कल्कि पुराण / Sampurn Kalki Puran
Author
CategoryHindi Audiobooks Religious Books in Hindi PDF
Language
Duration 5:24 hrs
Source Youtube
“विवेक के मामलों में बहुमत के नियम का कोई स्थान नहीं है।” मोहनदास करमचंद गांधी (1869-1948)
“In matters of conscience the law of majority has no place.” Mohandas Karamchand Gandhi (1869-1948)

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