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फ़क़ीर : रुज़बेह एन. भौरचा द्वारा हिंदी ऑडियो बुक | Fakir : by Ruzbeh N. Bhaurcha Hindi Audiobook

फ़क़ीर : रुज़बेह एन. भौरचा द्वारा हिंदी ऑडियो बुक | Fakir : by Ruzbeh N. Bhaurcha Hindi Audiobook
पुस्तक का विवरण / Book Details
AudioBook Name फ़क़ीर / Fakir
Author
Category,
Language
Duration 32:20 mins
Source Youtube

Fakir Hindi Audiobook का संक्षिप्त विवरण : यह प्रसिद्ध उपन्यास लेखक, रुज़बेह एन. भौरचा की सबसे प्रसिद्ध कृति है, जिसमें वे अपने गुरु के हाथ से निर्देशित, आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहे एक शिष्य की कहानी बताते हैं। कहानी पाठक के लिए भी धार्मिकता के मार्ग पर चलने का प्रयास करने के लिए एक प्रेरणा है। कर्म, ईश्वर, मृत्यु के बाद के जीवन, आत्मा के साथ बातचीत, ऊर्जा और आध्यात्मिक अभ्यास के कठिन प्रश्न, अच्छाई में ईश्वर की खोज और गुरु की सर्वव्यापीता, सुलभ तरीके से खोजी जाती है; यह उपन्यास आपको न केवल अच्छी तरह जीना सिखाता है, बल्कि अच्छी तरह से मरना भी सिखाता है।

बिखरे घुघराले बालों वाले नन्हे से बच्चे के गालों में गड्ढे दिखाई रहे थे। वह अपनी चमकती आंखों के साथ हौले से बोला, ‘डै…डडी…, प्लीज़ मत जाओ।’ सुनहरे बालों वाली किशोरी की आंखें मानो आरोपों की बौछार कर रही थीं। उसके सुर की नफरत को सुन कर लगा जैसे वह उसकी कब्र पर चल रही हो, “डैड! तुम एक हारे हुए बदतर इंसान हो !” जैसा कि पहले लाखों बार हो चुका था, वह एक झटके से उठ बैठा और अपनी थकी आंखों से पु;रानी अलार्म घड़ी को देखा। वह कराहा, पेट में दर्द महसूस होने पर उसने अपने आप को ही कोसा। अभी तो रात के तीन भी नहीं बजे। वह मुश्किल से आधा घंटा सोया होगा। उसने आंखें बंद कीं, गहरी सांस ली और नींद लाने के लिए प्रार्थना करने लगा। वह एक लंबे अरसे से चैन की नींद नहीं ले सका था। बहुत लंबे अरसे से- वह फिर
से एक और रात जाग कर नहीं काटना चाहता था। कमरे में एक मोमबत्ती जल रही थी, जो चुपके से अपनी सुनहरी पीली जोत से कमरे के: अंधेरे को प्यार से लील रही थी। उसके हिसाब से, आग अंधेरे का नाश करने के अलावा भली व नेक आत्माओं को भी निमंत्रण देती थी, जिन्हें वह संरक्षक देवदूत या फ़रिश्ते कहता था। सबसे खास बात तो यह थी कि यह रोशनी अनचाही आत्माओं को दूर रखती, जिन्हें वह आकाश से आने वाली बुरी आत्माएं कहता था। पर वे विचार तो उसके भीतर थे और केवल ज्योति की शांति ही उसके मस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल और बेचैनी को दूर कर सकती थी। जहां तक शांति का प्रश्न था, वहां तो सब कुछ ही दिवालिया हो चुका था।

वह हमेशा की तरह प्यास से मरा जा रहा था। शायद शराब उतनी अच्छी नहीं थी, जितना दावा किया गया था या उसने रोज़ से कहीं ज़्यादा पी ली थी। उसने बंद आंखों के साथ अंदाज़ा लगाना चाहा कि वह कितनी पी चुका था। वह पिछले दिन से किसी प्यासी मछली की तरह पीता आ रहा था। आज भी उसने वक़्त से बहुत पहले ही पीना शुरू कर दिया था। बहुत पहले…लगभग दोपहर के समय ही। फिर क़रीब एक घंटे बाद वह अपनी सात मील लंबी सैर पर निकल पड़ा था। बेशक शराब से भरा थर्मस साथ था और वह रास्ते में भी गटकने से बाज़ नहीं आया था। वह आदमी ज़ोर से कराहा मानो अपने दिमाग़ के आगे गिड़गिड़ा रहा हो कि वह बकवास बंद करे और नींद पर अपना ध्यान रमाए। कुछ ही क्षण बाद, वह गहरी नींद में था | वह जानता था कि उसे एक बार फिर से अपने सफर पर निकलना है। उसके पास कोई ज़्यादा चुनाव नहीं था। हमेशा की तरह रातों को आने वाले बुरे सपने जारी थे, जो उसके विवेक की ओर जाने वाले रास्ते के आखिरी निशानों को भी मिटाने पर तुले थे। वह बरसों से, किसी बंजारे की तरह जीता आया था; किसी भी जगह पर कुछ महीनों से ज़्यादा नहीं टिकता था। किसी जगह टिककर रहने का सबसे बड़ा रिकॉर्ड ग्यारह महीने का था। बेशक उसकी दजह यह रही थी कि वह तीन महीने तक तो अस्पताल के बिस्तर पर ही था, उसे ऐसी बीमारी के इलाज के लिए भर्ती किया गया था जिसका बहुत सारी जांचों के बाद भी पता नहीं चल सका। बीमारी का पता नहीं चला, तो इलाज भी नहीं हो सका। उसे सारे बिल अदा करने और अपने इक्का-दुक्का सामान को बांध कर तैयार करने में: एक दिन भी नहीं लगा था। दरअसल उसने इतनी बार सारा सामान बांधा था कि अब वह यह काम उनींदा या नशे में धुत्त होने पर भी कर सकता था। उसे एक जिप्सी और हिप्पी माना जाता था, पर वह तो अपनी जड़ों के लिए तरस रहा था…साथ ही वह यह भी जानता था कि उन्हें पाना उसके कर्मों में नहीं बदा था, कम-से-कम इस जन्म में तो नहीं था। उसके कोई यार-दोस्त नहीं थे। कोई नहीं, बस मकान मालिक ही था, जो उसका पूरा नाम जानता था। बेशक उसे सड़क पर घूमने वाले अनाथ लड़के ज़रूर याद करते,
जिन्हें वह अक्सर खाना या पैसे देता या फिर कुछ रेस्त्रां के स्टाफ, जहां वह कभी-कभी जाता था; ताकि इंसानी सोहबत को याद रख सके और ऐसा खाना खा सके, जो डिब्बों में नहीं मिलता था। हां, वह पगड़ी वाला बूढ़ा सिक्ख उसे ज़रूर याद करेगा, जो उसे शराब बेचता था। वह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से क़रीब आधे घंटे की दूरी पर बसे छोटे से गांव के खेतों में बीते बचपन के किस्से सुनाता था। बूढ़ा अक्सर पी कर रोने लगता, जो कि वह अक्सर करता था और अपने बचपन, गांव व परिवार के किस्से सनाता। वह ख़ासतौर पर वह जानता था कि उसे एक बार फिर से अपने सफर पर निकलना है। उसके पास कोई ज़्यादा चुनाव नहीं था। हमेशा की तरह रातों को आने वाले बुरे सपने जारी थे, जो उसके विवेक की ओर जाने वाले रास्ते के आखिरी निशानों को भी मिटाने पर तुले थे। वह बरसों से, किसी बंजारे की तरह जीता आया था; किसी भी जगह पर कुछ महीनों से ज़्यादा नहीं टिकता था। किसी जगह टिककर रहने का सबसे बड़ा रिकॉर्ड ग्यारह महीने का था। बेशक उसकी दजह यह रही थी कि वह तीन महीने तक तो अस्पताल के बिस्तर पर ही था, उसे ऐसी बीमारी के इलाज के लिए भर्ती किया गया था जिसका बहुत सारी जांचों के बाद भी पता नहीं चल सका। बीमारी का पता नहीं चला, तो इलाज भी नहीं हो सका। उसे सारे बिल अदा करने और अपने इक्का-दुक्का सामान को बांध कर तैयार करने में: एक दिन भी नहीं लगा था। दरअसल उसने इतनी बार सारा सामान बांधा था कि अब वह यह काम उनींदा या नशे में धुत्त होने पर भी कर सकता था। उसे एक जिप्सी और हिप्पी माना जाता था, पर वह तो अपनी जड़ों के लिए तरस रहा था…साथ ही वह यह भी जानता था कि उन्हें पाना उसके कर्मों में नहीं बदा था, कम-से-कम इस जन्म में तो नहीं था। उसके कोई यार-दोस्त नहीं थे। कोई नहीं, बस मकान मालिक ही था, जो उसका पूरा नाम जानता था। बेशक उसे सड़क पर घूमने वाले अनाथ लड़के ज़रूर याद करते, जिन्हें वह अक्सर खाना या पैसे देता या फिर कुछ रेस्त्रां के स्टाफ, जहां वह कभी-कभी जाता था; ताकि इंसानी सोहबत को याद रख सके और ऐसा खाना खा सके, जो डिब्बों में नहीं मिलता था। हां, वह पगड़ी वाला बूढ़ा सिक्ख उसे ज़रूर याद करेगा, जो उसे शराब बेचता था। वह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से क़रीब आधे घंटे की दूरी पर बसे छोटे से गांव के खेतों में बीते बचपन के किस्से सुनाता था। बूढ़ा अक्सर पी कर रोने लगता, जो कि वह अक्सर करता था और अपने बचपन, गांव व परिवार के किस्से सनाता। वह ख़ासतौर पर इस बात का रोना रोता कि वह चाहने पर भी पिछले साठ सालों से इस शहर को छोड़ कर अपने ‘घर’ नहीं जा सका। “तो तुम वापस क्यों नहीं चले जाते?” “वापस कहां जाऊं? सब तो ख़त्म हो गया। वहां मैं जिंदा कैसे रहूंगा? अगर बीमार पड़ा तो मेरी देखरेख कौन करेगा? नहीं बेटे…मैं चाहने पर भी जा नहीं सकता…मुझे तो चालीस बरस पहले ही चले जाना चाहिए था पर अपने-आप से कहता रहा कि बाद में जाऊंगा…बाद में जाऊंगा और अब उसके लिए बहुत देर हो गई है। मुझे तो बहुत पहले ही चले जाना चाहिए था। सचमुच चले जाना चाहिए था। अब कितनी देर हो गई। शरीर बूढ़ा गया और मैं पहले जैसा नहीं रहा। मेरी आत्मा वहां बसती है, पर बदकिस्मती से ‘शरीर यहां पड़ा है, मैं यहां के पत्थरदिल शहर में जी रहा हूं। मैं तब क्यों नहीं गया, जब मैं आसानी से जा सकता था? मैं कितना बड़ा मूर्ख था! सारी जिंदगी मैं गांव जाने के लिए तरसता रहा, जहां मैं आसानी से जा सकता था…बेशक अगर मैं एक उलझा हुआ लालची बेवकूफ़ इंसान न होता तो जा सकता था।” नवयुवक हामी भरता और खुद भी नशे में धुत्त हो जाने पर जवाब देता। “हां! मैं तुम्हारा मतलब समझ सकता हूं। जब दिल और आत्मा कहीं और रहना चाहे पर शरीर ‘को किसी भी वजह से उनसे दूर रहना पड़े तो जिंदगी जहन्नुम हो जाती है। जहन्नुम जाने के लिए किसी को मरना नहीं होता। तक़रीबन तो यह हमारे मन की ही एक अवस्था होती है।”

”जो तुम्हारी आत्मा चाहती है, वही करो और अगर न कर सको तो अपने-
आप को शांत करते हुए वर्तमान को पूरी गरिमा के साथ स्वीकार करो, उसे
ईश्वर की मर्जी मान लो। बेटा, इसके अलावा कोई दवूसरा रास्ता नहीं होता।”

तब अचानक ही उसके भीतर से एक स्वर उठता सुनाई देता। “बेटा! अपने मन की अवस्था बदलो। जो तुम्हारी आत्मा चाहती है, वही करो और अगर न कर सको, तो अपने-आप को शांत करते हुए वर्तमान को पूरी गरिमा के साथ स्वीकार करो, उसे ईश्वर की मर्जी मान लो। बेटा, इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होता…” वह जानता था कि उसकी अंतरात्मा से निकला यह स्वर किसी प्राचीन सत्य की गूंज था पर वह इसे अनसुना कर देता। या तो वह बहुत गुस्से में था या कमजोर था, जो भी हो पर वह अभी ऐसे विवेकपूर्ण रास्ते को चुनने और उस पर चलने के लिए खुद को राजी नहीं कर पा रहा था, जहां उसे मन की शांति मिल सकती थी। अपने जीवन का सबसे बेहतरीन फैसला लेने के लिए बुद्धिमानी का सहारा लेना होता है और भाग्य या ईश्वर से जो भी मिले, उसे पूरे सकारात्मक समर्पण के साथ स्वीकार करना होता है।

“जो व्यक्ति धन गंवाता है, बहुत कुछ खो बैठता है; जो व्यक्ति मित्र को खो बैठता है, वह उससे भी कहीं अधिक खोता है, लेकिन जो अपने विश्वास को खो बैठता है, वह व्यक्ति अपना सर्वस्व खो देता है।” ‐ एलेयानोर
“He who loses money, loses much; He who loses a friend, loses much more, He who loses faith, loses all.” ‐ Eleanor

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