Kamrupa : By Ramanath tripathi Hindi Book | कामरूपा : रमानाथ त्रिपाठी द्वारा हिंदी पुस्तक
कामरूपा पुस्तक पीडीएफ के कुछ अंश :
डी. लिट् उपाधि के लिए असमिया, बांग्ला और ओड़िया रामायणों का शोधपरक अध्ययन करते समय मैंने पूर्वांचल के इतिहास, भूगोल और संस्कृति का भी अध्ययन किया था। इस प्रसंग में मेरा परिचय बंगाल में प्रचारित कई मर्मस्पर्शी आख्यान गीतों से हुआ था। इनमें तीन-चार आख्यान गीतों का संबंध आधुनिक बांग्लादेश की चंद्रावती नाम की रामायण-लेखिका से था। मैंने चंद्रावती की व्यथा- कथा से प्रभावित होकर ‘शंख-सिंदूर’ उपन्यास लिखा था। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे कई प्रबुद्धजनों ने इसकी प्रशंसा की थी। उ.प्र. हिंदी संस्थान ने इसे पुरस्कृत किया था। इसके अनुवाद ओड़िया, असमिया और अंग्रेजी में हुए हैं।
प्रकाशक और पाठकों ने अनुरोध किया था कि मैं ऐसे ही दो उपन्यास ओड़िशा और असम की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लेकर लिखूँ। मैंने असम की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास की रचना का मन बनाया। असम का प्राचीन नाम कामरूप है। पुराणों के अनुसार देवताओं के कहने पर कामदेव ने शंकर की तपस्या भंग करनी चाही तो उन्होंने तृतीय नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया था। कहा जाता है कि यहाँ उसने नया रूप पाया, इसलिए इस प्रदेश का नाम ‘कामरूप’ हुआ। आज भी असम के एक जिले का नाम कामरूप है। ऐसा प्रचार रहा है कि कामरूप की स्त्रियाँ जादू से पुरुषों को भेड़ा बनाकर रखती थीं।
पूर्वांचलीय रामायणों पर शोधकार्य करते समय मैंने असम के इतिहास, भूगोल, धर्म, संस्कृति आदि का भी अध्ययन किया था, किंतु वहाँ के जन-जीवन में मेरी गहरी पैठ नहीं हो सकी थी। मेरी समझ में प्रदेश विशेष में रचित कथा – साहित्य जन-जीवन की बहुत सारी जानकारी दे सकता है। मैंने इस लेखकों की कथाकृतियों का विशेष अध्ययन किया।
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| पुस्तक का विवरण / Book Details | |
| Book Name | कामरूपा | Kamrupa |
| Author | Ramanath Tripathi |
| Category | Literature Book in Hindi Novel Book in Hindi PDF |
| Language | हिंदी / Hindi |
| Pages | 200 |
| Quality | Good |
| Download Status | Not for Download |
“जब मैं चौदह साल का लड़का था, तब मेरे पिता इतने अज्ञानी थे कि मुझे उनका आसपास होना बिल्कुल नहीं पसंद था। लेकिन जब मैं इक्कीस का हुआ, तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि सात वर्षों में उन्होंने कितना कुछ सीख डाला था।” ‐ मार्क ट्वैन
“When I was a boy of fourteen, my father was so ignorant I could hardly stand to have the old man around. But when I got to be twenty-one, I was astonished at how much the old man had learned in seven years.” ‐ Mark Twain
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